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माँ काली कवच कथा  


नारदजी ने निवेदन किया “सबकुछ जानने वाले सर्वज्ञनाथ! अब मैं आपके मुख से भद्रकाली कवच तथा उस दशाक्षरी विद्या को सुनना चाहता हूँ जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।”


श्रीनारायण बोले “नारद! मैं उस दशाक्षरी महाविद्या तथा तीनों लोकों में दुर्लभ उस गोपनीय कवच का वर्णन करता हूँ, ध्यान से सुनो- ‘ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा’
यही वह दशाक्षरी विद्या है जिसे पुष्करतीर्थ में सूर्यग्रहण के अवसर पर दुर्वासा ने राजा को प्रदान की थी…उस समय राजा ने दस लाख जप करके यह मन्त्र सिद्ध किया और इस सर्वोत्तम कवच के पाँच लाख जप से ही वह सिद्धकवच होकर अयोध्या लौट गया और इसी कवच की कृपा से उसने सारी पृथ्वी को जीत लिया।”


यह सुनकर नारदजी ने कहा  “भगवन! जो तीनों लोकों में दुर्लभ है..उसदशाक्षरी विद्या को तो मैंने जान लिया और अब मैं आपसे उस दुर्लभ कवच को जानने का जिज्ञासु हूँ कृपा कर उस कवच का वर्णन कर मेरी जिज्ञासा शांत करें”


श्रीनारायण ने आगे कहा “विप्रेन्द्र! पूर्वकाल में त्रिपुरवध के भयंकर अवसर पर शिवजी की विजय के लिये नारायण ने कृपा करके शिव को जो परम अद्भुत कवच प्रदान किया था, उसका वर्णन करता हूँ, सुनो”-

“मुने! वह कवच अत्यन्त गोपनीयों से भी गोपनीय, तत्त्वस्वरूप तथा सम्पूर्ण मन्त्रसमुदाय का मूर्तिमान् स्वरूप है, उसी को पूर्वकाल में शिवजी ने दुर्वासा को दिया था और दुर्वासा ने महामनस्वी राजा सुचन्द्र को प्रदान किया था”


काली कवच


ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मे पातु मस्तकम्।

क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं ह्रीमिति लोचने॥1।।

(ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मेरे मस्तक की रक्षा करें, क्लीं कपाल की तथा ह्रीं ह्रीं ह्रीं नेत्रों की रक्षा करे।)


ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां मे सदावतु।

क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा दन्तं सदावतु॥2।।

(ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा सदा मेरी नासिका की रक्षा करे। क्रीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा सदा दाँतों की रक्षा करे।)


ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा पातुमेऽधरयुग्मकम्।

ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा कण्ठं सदावतु॥3।।

(ह्रीं भद्रकालिके स्वाहा मेरे दोनों ओठों की रक्षा करे। ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा सदा कण्ठ की रक्षा करे।)


ह्रीं कालिकायै स्वाहा कर्णयुग्मं सदावतु।

क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा स्कन्धं पातुसदा मम॥4।।

(ह्रीं कालिकायै स्वाहा सदा दोनों कानों की रक्षा करें। क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा सदा मेरे कंधों की रक्षा करे।)


क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्ष: सदावतु।

क्रीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं सदावतु॥5।।

(क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा सदा मेरेवक्ष:स्थल की रक्षा करे। क्रीं कालिकायै स्वाहा सदा मेरी नाभि की रक्षा करे।)


ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पष्ठं सदावतु।

रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तौ सदावतु॥6।।

(ह्रीं कालिकायै स्वाहा सदा मेरे पृष्ठभाग की रक्षा करे। रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा सदा हाथों की रक्षा करे।)


ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा पादौ सदावतु।

ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सर्वाङ्गं मे सदावतु॥7।।

(ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा सदा पैरों की रक्षा करे। ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सदा मेरे सर्वाङ्ग की रक्षा करे।)


प्राच्यां पातु महाकाली आगन्य्यां रक्त दन्तिका।

दक्षिणे पातु चामुण्डा नैर्ऋत्यां पातु कालिका॥8।।

(पूर्व में महाकाली और अगिन्कोण में रक्तदन्तिका रक्षा करें। दक्षिण में चामुण्डा रक्षा करें, नैर्ऋत्यकोण में कालिका रक्षा करें।


श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु चण्डिका।

उत्तरे विकटास्या च ऐशान्यां साट्टहासिनी॥9।।

( पश्चिम में श्यामा रक्षा करें। वायव्यकोण में चण्डिका, उत्तर में विकटास्या और ईशानकोण में अट्टहासिनी रक्षा करें।)


ऊर्ध्व पातु लोलजिह्वा मायाद्या पात्वध: सदा।

जले स्थले चान्तरिक्षे पातु विश्वप्रसू:सदा॥10।

(ऊर्ध्वभाग में लोलजिह्वा रक्षा करें। अधोभाग मे सदा आद्यामाया रक्षा करें। जल, स्थल और अन्तरिक्ष में सदा विश्वप्रसू रक्षा करें।)


कवच कहने के उपरांत श्री नारायण बोले “वत्स! यह कवच समस्त मन्त्रसमूह का मूर्तरूप, सम्पूर्ण कवचों का सारभूत और उत्कृष्ट से भी उत्कृष्टतर है…इसे मैंने तुम्हें बतला दिया।इसी कवच की कृपा से राजा सुचन्द्र सातों द्वीपों के अधिपति हो गये थे और इसी कवच के प्रभाव से पृथ्वीपति मान्धाता सप्तद्वीपवती पृथ्वी के अधिपति हुए थे। इसी के बल से प्रचेता और लोमश सिद्ध हुए थे तथा इसी के बल से सौभरि और पिप्पलायन योगियों में श्रेष्ठ कहलाये।”


“जिसे यह कवच सिद्ध हो जाता है, वह समस्त सिद्धियों का स्वामी बन जाता है।

सभी महादान, तपस्या और व्रत इस कवच की सोलहवीं कला की भी बराबरी नहीं कर सकते, यह निश्चित है।”


“जो इस कवच को जाने बिना जगज्जननी काली का भजन करता है, उसके लिये एक करोड जप करने पर भी यह मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता।”


कवच पाठ विधि-

गृहस्थों को स्नान करके प्रातः संधि और सांय संधि अर्थात सूर्योदय और सूर्यास्त के समय इस कवच का प्रतिदिन 11 बार पाठ करने मात्र से ही लाभ होता है। माँ काली के चित्र के सम्मुख दीपक प्रज्ज्वलित कर लाल आसन पर बैठकर इसका जप करना चाहिए।


साधकों और सिद्धि प्राप्ति के इच्छुकों को इस जप को किसी गुरु के निर्देशन में ही आरंभ करना चाहिए।


~आचार्य तुषारापात

  (ज्योतिष डॉक्टर)

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