काली कल्याणकारी!
पितृदोष तथा पितृपक्ष का विशेष उपाय, पितृपक्ष क्या है?
पितृपक्ष और पितृदोष की वैज्ञानिकता क्या है?
वैदिक ज्योतिष में पितृदोष तथा पितर से क्या अभिप्राय है ?
पितरों का चंद्रमा से क्या संबंध है?
आदि प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए पढ़िए यह लेख,यदि आपने इस लेख को पूरा पढ़ लिया तो पितृदोष, पितृपक्ष, पितरों आदि से जुड़ी जानकारियाँ न सिर्फ आपको प्राप्त हो जायेंगीं बल्कि इस पितृपक्ष का विशेष उपाय भी आप अच्छे से कर सकेंगें।
पितर से तात्पर्य-
पितर प्रेत शब्द का सामान्य बोली में बदला हुआ रूप है इसका अर्थ है हमारे वो पूर्वज जिनसे हमारा खून का संबंध है अर्थात जिनके रक्त से हमारा जन्म हुआ वे सशरीर हमारे बीच नहीं है पर उनका गुणसूत्र हममें है इसलिए भारत की महान धार्मिक परम्परा में श्राद्ध का चलन है जिससे हम अपने पूर्वजों को न भूलें उनके प्रति श्रद्धा रखें। ‘श्रद्धया इदं श्राद्धम्’ अर्थात श्रद्धा से पितरों की तृप्ति के लिए जो किया जाए वह श्राद्ध है। यहाँ तृप्ति का व्यापक अर्थ है इसे हम प्रायः किसी मृत पूर्वज के संतुष्ट होने से समझते हैं जबकि यह अपने जीन्स, अपने डी एन ए को बेहतर बनाने की प्रक्रिया अधिक है और आप अपने जीन्स बेहतर बनाकर ही अपने आगे आने वाली पीढ़ी को बेहतर बना सकते हैं जैसे कि कोई पहलवान अपने को अधिक शक्तिशाली बनाता है और ऐसा कई पीढ़ियों तक उसके कुल के लोग करते हैं तो आने वाली पीढ़ी अपने आप जन्म से ही शक्तिशाली होती है विज्ञान में इसे जेनिटिक्स इम्प्रूवमेंट कहते हैं। ऐसा आप तभी कर सकते हैं जब आप अपनी प्राचीन मान्यताओं और परम्पराओं का न सिर्फ पालन करें बल्कि उन्हें समझ के उन्हें विकसित भी करें और इसके लिए आपको अपने पितरों और पितृपक्ष को समझने की आवश्यकता होगी।
पितृपक्ष क्या है-
पितृपक्ष क्या है इसे जाने और समझे बगैर कई लोग पितृदोष आदि से भयभीत होकर अनापशनाप उपाय किया करते हैं। पितृपक्ष को समझने के लिए आइये थोड़ा सा ज्योतिष की गणित को समझते हैं। सूर्य और चंद्रमा जब एक ही राशि और समान अंशो पर होते हैं तब अमावस्या तिथि होती है और यही सूर्य और चंद्रमा की अगली युति जब होती है तब अगली अमावस्या पर एक मास पूरा होता है जिसे हम चांद्र मास कहते हैं हमारा यही चांद्र मास पितरों का एक अहोरात्र अर्थात एक पूरा दिन (दिन+रात) होता है। चांद्र मास दो पक्षों में होता है शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। अर्थात पितरों की रात्रि और दिन।
आश्विन मास के कृष्ण पक्ष को पितरों के लिए समर्पित किया गया है इसे ही पितृपक्ष कहते हैं वास्तव में हमारे यह 15 दिन पितरों का एक विशेष दिन होता है इसलिए इस दिन पितरों हेतु किये गए श्राद्ध आदि कर्मों का विशेष फल पुराणों में वर्णित है परन्तु पुराणों में वर्णित इन श्राद्ध कर्मों आदि के पीछे क्या कोई वैज्ञानिक कारण है या यह मात्र कोई धार्मिक परम्परा है यह जानते हैं हमारे अगले प्रश्न के उत्तर में-
पितरों का चंद्रमा से संबंध-
पितृपक्ष की वैज्ञानिकता को समझने के लिए हमें पितर और चंद्रमा का संबंध पहले जानना होगा। जैसा कि आधुनिक विज्ञान कहता है कि चंद्रमा का जन्म पृथ्वी और किसी अन्य ग्रह की टक्कर से हुआ है अर्थात पृथ्वी का कुछ हिस्सा कई लाखों वर्षों पूर्व टूटकर अलग हो गया था और वही टुकड़ा पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के कारण उसकी परिक्रमा करने लगा और हमारा उपग्रह चंद्रमा कहलाने लगा। इसका मतलब यह है कि चंद्रमा पृथ्वी का ही एक अंश है जो अब पृथ्वी का नहीं रहा ठीक उसी तरह जैसे कोई मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह पृथ्वी पर नहीं रहता। हमारे प्राचीन ऋषि मुनि यह बात बिना किसी टेलिस्कोप के जानते थे इसीलिए उन्होंने चंद्रमा को पृथ्वी का पितरलोक कहा अर्थात पृथ्वी से अलग होकर भी उसके गुरुत्वाकर्षण में बंधा हुआ उसकी परिक्रमा करता पिंड। पितरों की परिभाषा भी इसी सिद्धान्त पर कार्य करती है जहाँ ये माना जाता है कि आत्मा शरीर तो छोड़ चुकी है किंतु सूक्ष्म शरीर में अभी भी वह अपने परिजनों से मोह, माया आदि के भाव में पड़ी उनकी परिक्रमा करती है प्रेम के अतिरेक के कारण ही इसे प्रेत कहा जाता है। चूँकि आत्मा का शुद्ध अवस्था अर्थात परमात्मा में परिवर्तित होना ही अंतिम लक्ष्य है अतः उसके इन बंधनो को काटने के लिए पितरों के तर्पण आदि का विधान है। पितरों का निवास चंद्रमा के पृष्ठभाग अर्थात जो भाग हमें कभी दिखाई नहीं देता उसपर माना जाता है और वहाँ अंतरिक्ष की तरह शून्य गुरुत्वाकर्षण नहीं है चंद्रमा पर गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी का 1/6 भाग है इसी गुरुत्वाकर्षण से आत्मा को मुक्त करने के लिए मंत्रों की शक्ति के स्पंदन बल का विधान बनाया गया जो वैदिक युग से होते होते कर्मकांड आदि में बदल गया।
पितृपक्ष की वैज्ञानिकता-
जैसा कि ऊपर बताया गया कि पितरों का स्थान चंद्रमा का पृष्ठभाग है और वह स्थान हमें कभी दिखाई नहीं देता क्योंकि चंद्रमा की पृथ्वी की परिक्रमा करने और अपने अक्ष पर घूमने की गति एक सी है इसलिए इसके पीछे का भाग हमें कभी दिखाई नहीं देता। चंद्रमा पर सूर्योदय और सूर्यास्त के समय धूल का गुबार सा उठता है जिसका कारण है सूर्य के प्रकाश के कारण अणुओं में विद्युतीय ऊर्जा का बनना, चंद्रमा के इस घातक रेडिएशन के सौर हवाओं के द्वारा पृथ्वी पर होने वाली वापसी को पितरों के आगमन का प्रतीक बना (क्योंकि चंद्रमा एक समय में पृथ्वी से ही टूट कर बना था) के इस रेडिएशन से बचने के लिए कुछ नियम आदि बना दिए गए। यह रेडिएशन वैदिक काल में आश्विन मास में सर्वाधिक होता था इसी कारण इसी मास में इससे बचाव के लिए पितृपक्ष की व्यवस्था बना दी गई। यह उतरने वाले सूक्ष्म चांद्रकण पेड़ों में पीपल, बरगद और बेल के वृक्षों में अवशोषित कर लिए जाते हैं इसी तरह कौवे, हँस, कुत्ते, गाय और हाथी आदि जानवरों में तथा मछली कछुए और कुछ साँपो में यह कण सबसे अधिक अवशोषित किये जाते हैं और यह सारे वृक्ष, जीव, जलचर आदि इन विषैले सूक्ष्म कणों का शोधन कर देते हैं। इसीकारण हमारे महान ऋषि मुनि जो कि उस समय के वैज्ञानिक भी थे, ने इन पितृपक्ष के दिनों में इन वृक्षों को जल देने का और इन जीव जंतुओं को भोजन आदि देने का विधान बनाया जिससे एक तो हम इस विज्ञान को भूलें नहीं और दूसरा चाँद से आयी रेडिएशन की इस घातक ऊर्जा को सोखने वाले ये जीव जंतु वनस्पति आदि सदैव बने रहें जिससे हम सुरक्षित बने रहें।
तो यह है पितृपक्ष मनाने का वैज्ञानिक आधार, कोई भी परम्परा या मान्यता यूँ ही नहीं बनती हमारा धर्म पूर्णतया वैज्ञानिक और सृष्टि से साम्य बिठाने वाला पराविज्ञान है।
आप सभी से अपेक्षा है कि आप इस लेख को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचायेंगें और
भारतीय ज्योतिष विज्ञान और सनातन धर्म की पताका फहराने और जनकल्याण में अपना इतना सहयोग अवश्य देंगें।
पितृदोष क्या है और वैदिक ज्योतिष में पितृ दोष-
वैदिक ज्योतिष में पितृदोष का कोई भी वर्णन प्राप्त नहीं होता है इसका एक प्रमुख कारण यह हो सकता है कि उस काल में ऊपर बताई गई सारी बातें न सिर्फ प्रचलन में थीं बल्कि सब उनका पालन भी करते थे तो ऐसे किसी दोष का वर्णन नहीं प्राप्त होता है लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि उसके बाद एक बहुत ही लंबा समय बीत चुका है अतः आधुनिक युग में यदि कुछ नए दोष ज्योतिषियों द्वारा बताए जाते हैं तो उनका परीक्षण होना चाहिए।
सामान्यतः कुंडली में पितृदोष राहु के साथ अन्य ग्रहों की स्थिति से परिभाषित होता है और राहु है ,पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा और चंद्रमा के पृथ्वी के परिक्रमा पथ का कटान बिंदु ,अर्थात राहु के साथ अन्य ग्रहों पर चंद्रमा के उसी विकिरण (रेडिएशन) का कितना और कैसा असर होता है यह कुंडली में स्थित राहु बताता है और यही पितृदोष है कि उस ग्रह से संबंधित पॉजिटिव एनर्जी कितनी दूषित हो रही है उपाय के तौर पर पृथ्वी पर उस ग्रह जिसकी ऊर्जा दूषित हो रही होती है उसी ग्रह की प्रकृति वाले पदार्थों द्वारा उसकी भरपाई ज्योतिषी बताते हैं, संबंधित ग्रह के मंत्रों आदि द्वारा भी उस ग्रह की शुभ ऊर्जा जिसे विदेशी पाजिटिव एनर्जी कहते हैं उत्पन्न होती है।
शेष यह तो स्पष्ट है ही कि यदि आप अपनी जड़ों का ध्यान नहीं रखेंगे तो एक दिन गिर जाएंगें हीं अतः पितृदोष से डरें नहीं बल्कि इसके कारणों को समझ के छोटे छोटे बदलाव अपने आप में लाये तो यह दोष वैदिक काल की तरह कभी उत्पन्न ही नहीं हो पायेगा।
पितृपक्ष विशेष उपाय-
यह उपाय बहुत ही आसान है इसके लिए आपको सफेद सूती कपड़े के तीन टुकड़े लेने हैं तीनों कपड़ो की लंबाई और चौड़ाई लगभग एक एक फुट हो अर्थात एक बाई एक वर्ग फुट के चौकोर सफेद सूती कपड़े तीन संख्या में लेने हैं जिससे आप उनकी पोटली बना सकें। इसके साथ आपको सफेद धागा चाहिए होगा। सामग्री में आपको सवा मुठ्ठी चावल, सवा मुठ्ठी जौ और सवा मुठ्ठी काले तिल लेने हैं। लकड़ी का एक पाटा या चौकी भी रख लें थोड़ा सा सरसों का तेल और मिट्टी के तीन दीपक और रुई की लंबी वाली बाती लें।
बताए गए उपाय में तिथि और समय का ध्यान रखें ज्योतिष काल का विज्ञान है और यदि आप समय पर ही कार्य नहीं करेंगें तो लाभ अल्प हो जाता है इसलिए पोस्ट पहले से लिख दी है ताकि आप अपने समय का सामंजस्य बिठा लें।
आपको यह पूजन 15 सितम्बर की शाम को 6 बजे से रात्रि के 8 बजकर 30 मिनट के भीतर के ढाई घंटे में कभी भी कर लेना है। इस पूजन को परिवार का कोई भी एक सदस्य कर सकता है। आप अपने कुल के अनुसार जो भी श्राद्ध कर्म इत्यादि करते हैं वो अवश्य करें , इस उपाय को आप अलग से निसंकोच कर सकते हैं। यह पूजन आपको अपने नित्य के दैनिक पूजन स्थल पर नहीं करना है घर के दक्षिण पश्चिम दिशा के कोने में इस उपाय को करें तो सर्वोत्तम रहेगा।
1. 15 सितम्बर की शाम को स्नान आदि करके अपने घर के दक्षिण पश्चिम (नैऋत्य) कोण में (यदि यह सम्भव न हो तो दक्षिण दिशा में करें) साफ जगह पर उसी दिशा (नैऋत्य कोण अथवा दक्षिण दिशा) की ओर मुँह करके अपने आसन पर बैठें और अपने सामने लगभग डेढ़ हाथ की दूरी पर लकड़ी की चौकी या पाटा रखें। उसके बाद तीनों कपड़े के टुकड़े उस चौकी पर अगल बगल बिछा दें।
2. अब चौकी पर बिछाए गये कपड़े के सबसे पहले टुकड़े पर सवा मुठ्ठी चावल रखें फिर उसके बाद वाले कपड़े पर सवा मुठ्ठी जौ रखें और सबसे आखिरी वाले कपड़े पर सवा मुठ्ठी काले तिल रखें।
3. उसके बाद तीनों कपड़ों के सामने आपको एक एक सरसों के तेल का दीपक चौकी से थोड़ी दूर जलाना है, दिए की लौ का मुँह चौकी की ओर रहेगा अर्थात आपके और चौकी के बीच तीन दीपक जल रहे होंगें और चावल, जौ और काले तिल की ढेरियों की ओर उन दीपकों का मुँह होगा। (दीपक कपड़ो से इतना दूर रखें कि कपड़ा आग न पकड़ ले)
4. आपको इसके अतिरिक्त न तो कोई धूप बत्ती जलानी है न ही कोई सुगंध आदि करनी है न ही रोली चंदन आदि का टीका आदि लगाना या प्रयोग करना है। न ही पूजन के आरम्भ में जल आदि का प्रयोग कपड़े या चावल आदि पर करना है।
5. दीपक जला लेने के बाद अपने माता पिता का 5 बार नाम लें और उन्हें मानसिक प्रणाम करें और उसके बाद इस मंत्र को 11 मिनट के लिए जपना है मंत्र इस प्रकार है-
ॐ सर्व पितृ देवताभ्यो नमः
6. मंत्र जपने तक दीपक जलते रहने चाहियें जप पूरा हो जाने के बाद सर्वप्रथम काले तिल वाला कपड़ा उठा के उसकी पोटली बना के सफेद धागे से बाँधकर चौकी के उसी स्थान पर रख दें फिर उसके बाद जौ की पोटली बना के और अंत मे चावल की पोटली बना के चौकी पर वहीं रख दें। अपने सभी पितरों से क्षमा याचना करें और आसन से उठ जाएं और चौकी, दीपक और तीनों पोटलियों को वहीं अमावस्या अर्थात 17 सितम्बर के सूर्योदय तक वहीं रखा रहने दें।
7. 17 सितम्बर को स्नान आदि करके तीनो पोटलियों के सामने पुनः आसन बिछा के बैठ जाएं और 108 बार इस मंत्र को जपें- ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः। जप पूरा हो जाने के बाद तीनो पोटली चौकी से उठा लें। आसन, खाली दीपक और चौकी भी वहाँ से हटा दें। यह काम आपको 17 सितम्बर को सूर्योदय से लेकर मध्याह्न के मध्य किसी भी समय में कर लेना है।
8. अब ध्यान से समझें तीनों पोटली में से सबसे पहले जौ वाली पोटली खोलकर उसमें से पूरी जौ किसी निर्जन या सुनसान जगह पर दबा दें ,चावल वाली पोटली से सारे चावल आपको किसी नदी या बहते हुए जल में बहा देना है यदि नदी या बहते हुए जल की स्थिति न हो तो पूरे चावल को किसी ऐसी जगह (घर से दूर) बिखेर दें जहाँ कोई पशु पक्षी उसे खा ले और अंत में काले तिल किसी जल से आधे भरे लोटे में डालकर उसे पीपल के वृक्ष पर चढ़ा दें और पीपल के पेड़ को प्रणाम कर वापस लौट आएं। यदि पीपल का पेड़ न उपलब्ध हो तो काले तिल की पोटली को न खोलें बल्कि वह बँधी पोटली किसी भी पेड़ के नीचे रख आएं और प्रणाम करके वापस लौट आएं। यह काम आपको 17 सितम्बर को सूर्योदय से लेकर मध्याह्न के मध्य किसी भी समय में कर लेना है।
9. जिन लोगों को पितरों से जुड़ी समस्याएं, भूत प्रेत बाधा, पितरों का बंधन, संतान, व्यापार, स्वास्थ्य, धन और कर्ज आदि जीवन के तमाम सुखों का अभाव बिना किसी कारण के रहता हो उन्हें यह उपाय अवश्य लाभ पहुँचायेगा ऐसी माँ से मेरी प्रार्थना है।
शेष काली इच्छा!
~आचार्य तुषारापात
(ज्योतिष डॉक्टर)
जय माँ काली 🙏
काली कल्याणकारी !
यह सरल और विशेष उपाय सबको करना चाहिए ,पितृदेव सबका कल्याण करे
बहुत धन्यवाद गुरुजी🙏🙏
जय माँ काली कल्याणकारी